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अगर भारत देश नहीं, इंडि‍या इंक होता तो ?

जागरण संपादकीय ब्लॉग
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कि‍सी कंपनी में काम करने के लि‍ए 78 लोग रखे गए हों और उनमें से आधे के पास कोई काम ही नहीं हो। सोचि‍ए, ऐसा हो तो क्‍या हो? क्‍या होगा उस कंपनी का? कंपनी कुप्रबंधन के दलदल में धंसती चली जाएगी, कभी आगे नहीं बढ़ पाएगी, कभी भी दीवालीया हो जाएगी और कंपनी पर लोगों या शेयरधारकों का भरोसा तो कभी जम ही नहीं सकता। है कि‍ नहीं? अगर भारत वर्ष को एक कंपनी के रूप में देखा जाए तो समझ लीजि‍ए अपने देश का भी हाल कुछ यही होने वाला है।

हमने देश चलाने के लि‍ए जि‍नको बागडोर सौंपी है, उन ‘सीईओ’ मनमोहन सिंह ने 77 लोगों की टीम तो बना ली है, लेकि‍न रोना है कि‍ करीब 38 के पास करने को कुछ काम ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि‍ वे काम करना नहीं चाहते। उनका रोना है कि‍ उन्‍हें काम ही नहीं दि‍या जाता। उन्‍हें तनख्‍वाह दी जाती है, गाड़ी-बंगले और बाकी तमाम सुवि‍धाएं दी गई हैं, फि‍र काम क्‍यों नहीं दि‍या गया है, इसका जवाब देने के लि‍ए कोई तैयार नहीं है। शायद इसलि‍ए क्‍योंकि‍ इनकी तनख्‍वाह और ऐश-आराम पर होने वाला खर्च जनता की जेब से वूसला जाता है। जरा सोचि‍ए, अगर कि‍सी प्राइवेट कंपनी में ऐसा होता तो क्‍या होता? या तो उन सभी को काम मि‍लता, या सीईओ की छुट्टी होती या फि‍र बेकाम लोगों को नि‍काल दि‍या जाता।

मनमोहन सिंह काबीना में उनके समेत 78 मंत्री हैं। इतना बड़ा मंत्रि‍मंडल देश के इति‍हास में पहले कभी नहीं रहा। 78 में 38 राज्‍य मंत्री हैं। कमोवेश सभी की शि‍कायत है कि‍ उनकी क्षमताओं का पूरा इस्‍तेमाल नहीं हो रहा है। इस दर्द के साथ नौकरी करने वाले राज्‍य मंत्रि‍यों में अच्‍छी-खासी तादाद उन युवा मंत्रि‍यों की भी है, जो वाकई कुछ कर दि‍खाना चाहते हैं। पर उन्‍हें काम ही नहीं दि‍या जा रहा। यह हाल उसी सरकार का है जो युवाओं की ताकत और उनकी क्षमता का भरपूर दोहन कि‍ए जाने का ढि‍ढोरा पीटती रही है। फि‍र आखि‍र क्‍या वजह है कि‍ सरकार के कैबि‍नेट मंत्री ही अपने जूनि‍यर मंत्रि‍यों को काम नहीं दे रहे?


कहीं ऐसा तो नहीं कि‍ युवाओं से उनमें असुरक्षा की भावना घर कर गई हो और उन्‍हें अपनी कुर्सी ही खतरे में लगती हो? इसमें कोई शक नहीं कि‍ युवाओं में काम करने की असीमि‍त क्षमता होती है। वे चुनौति‍यों-बाधाओं से जूझने का भी पूरा जज्‍बा रखते हैं। उचि‍त माहौल नहीं मि‍लने या कहें कि‍ वि‍परीत परि‍स्‍थि‍ति‍यों में भी उनसे बेहतर नतीजे मि‍लने की पूरी गुंजायश रहती है। ऐसे में कहीं भी यथास्‍थि‍ति‍वादी लोग युवाओं को चुनौती के रूप में देखते ही हैं। वैसे तो यह स्‍थि‍ति‍ नाकाबि‍ल-ए-बर्दाश्‍त है, पर अगर काम होता और नतीजे आते तो पल भर के लि‍ए मन को समझाया भी जा सकता था। हालत यह है कि‍ कैबि‍नेट मंत्री अपनी राजनीति‍ चमकाने में व्‍यस्‍त होते हैं और राज्‍य मंत्री बेचारगी के लहजे में काम नहीं कर पाते हैं। खामि‍याजा हम जनता को भुगतना पड़ रहा है। एक तो हमारा काम नहीं हो रहा, उस पर हमारी जेब के पैसे भी उड़ रहे हैं। गरीब भारत आखि‍र यह दोहरी मार कब तक सह सकेगा?

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